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१९५ ॥ श्री भर भर शाह जी ॥(५)


पद:-

मन की एकाग्रता से सुख नारि नर को होता।

सहबास करने लगते तब तन मन कैसा नोता।

जब हो जुदाई उस से बल वीर्य बुद्धि खोता।

कानो से है वह बहेरा आंखों में माड़ा पोता।

दुख को है सुक्ख समझा याही से कूड़ा ढोता।५।

पढ़ि सुनि गुना नहिं कछु बनि बैठि रट्टू तोता।

सतगुरु करै सो चेतै दै पाटि भव क सोता।

धुनि ध्यान नूर पाकर लय में लगावै गोता।

सन्मुख में श्याम श्यामा कटि जाय द्वैत जोता।

भर भर कहैं तजै तन फिर गर्भ में न रोता।१०।

प्रेम जिसका जिस से हो, उसको वही मानै सगा।

कहते हैं भर भर शाह श्री हरि भजन बिन सब है दगा।१२।