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२२७ ॥ श्री हग्गन शाह जी ॥


पद:-

सतगुरु शरनि सूरति भजन तब हरि परायन जीव हो।

धुनि ध्यान लय परकाश सन्मुख रूप जियतै शीव हो।

सुर मुनि मिलैं अनहद सुनै घट झरै अमृत पीव हो।

तन त्यागि ले परकाशपुर जहाँ दिया बाति न घीव हो।


दोहा:-

रवि शशि बारि समीर नहिं, महा प्रकाश अखण्ड।

सतगुरु करि जियतै लखै, फूटै भर्म क भण्ड॥