२२८ ॥ श्री घुरकन शाह जी ॥
पद:-
कवि कोबिद बनौ भव नहि तरिहौ।
यह तो सब तिरगुन की लीला बार बार जग में परिहौ।
सतगुरु करौ भजन बिधि जानौ तब जियतै तन मन भरिहौ।
ध्यान धुनि परकाश दशा लय रूप सामने निज करिहौ।
सुर मुनि मिलैं सुनो घट अनहद अमी पिओ फिर नहिं मरिहौ।
घुरकन शाह कहैं तन त्यागि के तब जग में पग नहिं धरिहौ।६।