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२७३ ॥ श्री शिव जी का त्रिशूल जी ॥


पद:-

मैं तो श्री शिव जी का तिरशूल।

हरि ने मोहिं प्रकट करिकै फिर शिवहिं दीन दै रूल।

दुष्टन के संघार करन में या को मानौ मूल।

शिव ने अज्ञा मानि लीन मोहिं सकै कौन करि तूल।

उन्हीं का संघार करौं मैं जे प्रभु के प्रतिकूल।५।

जा के ऊपर छोड़ि देहिं मोहिं ताहि देउँ चट हल।

सतगुरु करि सुमिरन बिधि जानै जियति मिटै भव गूल।

अन्त त्यागि तन निज पुर बैठै फेरि गर्भ नहिं झूल।८।