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३५९ ॥ श्री निहोरे शाह जी ॥


पद:-

भोजन बसन के बहुत संत हैं भजन करन के थोरे जी।

सतगुरु किह्यो न जप बिधि जान्यो रहे कोर के कोरे जी।

मूँड़ मुँड़ाय केश रखाये कोइ काले कोइ गोरे जी।

तन में तैल सुगन्धित लेपै मन बिषयों संग जोरे जी।

हाट बाट में घूमन जावैं गावैं तानै तोरे जी।५।

पाप कमाई हर दम करते लोक लाज को छोरे जी।

कपट कि मूरति मीठी बानी बोलत मानहु भोरे जी।

पैसा के हित ज्ञान कथत क्या नयन बहावत लोरे जी।

लखि लखि कलि का नाटक भाई कहते शाह निहोरे जी।

अन्त समय जम दूत बाँधि लै जांय नर्क में बोरैं जी।१०।