४६८ ॥ अनन्त श्री स्वामी सतगुरु नागा ॥(६)
पढ़ि सुनि ज्ञान कथैं पाखंडी।१।
प्राण बिहीन ज्ञान अनुभव बिन जैसे गीली कंडी।२।
सतगुरु बिन कोइ भेद न जानै पकड़ि जकड़ि ले रंडी।३।
भूलन कहैं अंत तन तजि के पड़ि है नर्क कि मंडी।४।
दोहा:-
कागद की किस्ती कभी जल में देत न काम।
भूलन साँचे भजन बिन मिलत न ठीक मुकाम।
माटी की हंडी पकी फूटि गई बेकाम।
भूलन हरि के भजन बिन मिलत नहीं आराम।
काठे का बरतन नहीं देत आगि में काम।
भूलन आतम लखे बिन मिलत नहीं बिश्राम।६।
दोहा:-
पद दोहा औ सोरठा, चौपाई लै रीति।
राम दास नागा कहैं, पढ़ैं सुनै कर प्रीति॥
रेफ़ बिन्दु में मन रमा, जो सबका है प्राण।
राम दास नागा कहैं, सतगुरु से लो जान॥
सब में सब से विलग है, घट में हेरैं सन्त।
राम दास नागा कहैं, बने रूप भगवन्त॥
मन इन्द्री वश में करे, बल शक्ती बढ़ि जाय।
राम दास नागा कहैं, सब में हरि दरशाय॥
सतगुरु के बेधै नहीं, सारे शिष्यन पाप।
राम दास नागा कहैं, गहै नाम की छाप।५।
भोजन जल औ नींद को, साधक देय भुलाय।
राम दास नागा कहैं, राम मिलैं उर लाय॥
आशिरबाद औ श्राप से,साधक जब अलगाय।
राम दास नागा कहैं, प्रभु लें गोद उठाय॥
शंका लघुशंका भई, राम नाम को जान।
राम दास नागा कहैं सुमिरन सब सुख खान॥
बच्चा सच्चा है वही, गच्चा कबहूँ न खाय।
राम दास नागा कहैं, हरि के संग दुलराय॥
साधक सच्चा है वही, भजन करै ह्वै शान्ति।
राम दास नागा कहैं, छूटि जाय सब भ्राँति।१०।
जब तक हरि पर नहिं करै, तन मन धन कुर्बान।
राम दास नागा कहैं, तब ही तक अग्यान॥
साधक सो है जानिये, निज को समझे नीच।
राम दास नागा कहैं, बसे अमरपुर बीच॥
स्तुति में होवे मगन, साधक चकना चूर।
राम दास नागा कहैं, रहै राम से दूर॥
एकै ध्यान से ध्यान सब, एकै नाम से नाम।
एकै तान से तान सब, एकै धाम से धाम॥
राम दास नागा कहैं, सतगुरु बचन जे मान।
तिनके दोनों दिशि बने, अनुभव करि हम जान।१५।
निराकार भगवान हैं, भगतन हित तन धार।
सुर मुनि जिनको भजत हैं, सब में सब से न्यार॥
राम दास नागा कहैं, नर तन है अनमोल।
हरि सुमिरन जे नहिं करैं, अन्त में निकली पोल॥
एक एक चींटी भई, अगणित बार सुरेश।
राम दास नागा कहैं, वरणि सकैं नहिं शेष॥
राम आपने खेल को, आपै जानन हार।
राम दास नागा कहैं, भजन करौ निशिवार॥
विद्या पढ़ना जब फलै, जाय अविद्या छूटि।
राम दास नागा कहैं. यही डारती कूटि।२०।
जारी........