१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(५५)
पद:-
मन चोर रात दिन कूटैं, सब सुकृत जीव का लूटै।
छिन छिन में लारी घूटैं, अस जीव से बाँधे फूटैं।
तन छोड़ नर्क में जूटैं, किमि जग चक्कर से छूटैं।
अन्धे कह नहिं टूटैं, जे द्वैत पै ठोंके खूँटैं।४।
शेर:-
आदत बुरी है जिसकी तन तजि नरक में खिसकी।
बोया है बेल बिष की, अन्धे कहैं वह उसकी॥
दोहा:-
हरि सुमिरन जे जन करैं, कट जाँय सारे क्लेश।
अन्धे कह साकेत में, तन तजि होवैं पेश॥