२१० ॥ श्री अंधे शाह जी ॥ (२१२)
दोहा:-
चौदह भाग शरीर के बिलग बिलग ह्वै जाँय।
फिरि अपनै जुरि जात हैं अन्धे कहैं सुनाय॥
खंड मंड यह योग है राम भजन ते होय।
अन्धे कह इस भेद को बिरलै जानत कोय॥
अपने तन अगणित लखौ अगणित ते फिरि एक।
अन्धे कह सतगुरु करो मन को डारौ सेंक॥
पढ़ब सुनब औ लिखब तजि गहौ नाम की टेक।
अन्धे कह सतगुरु शरनि अनुभव होंय अनेक॥
मनसा बाचा कर्मणा सतगुरु शरनि जो जाय।
अन्धे कह देखै सुनै बरनत नहीं सेराय।५।
जो जितना देखै सुनै करि लेवै विश्वास।
अन्धे कह सो जाय तरि बात कही हम खास॥
हरि की लीला अगम है हरि ही जानन हार।
अन्धे कह सतगुरु शरनि गहै सो होवै पार॥
अपने तन से निकसि के मुरदा तन में पेल।
काया का परवेस यह अन्धे कह है खेल॥
नाना सिद्धी जान कै पड़े भरम के भार।
अन्धे कह जन्मैं मरैं जग से लागो तार॥
महा जाल सब जानिये राम भजन है सार।
अंधे कह सतगुरु करो टूटै द्वैत केवार।१०।