२१० ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(२१८)
पद:-
जिसका राम नाम खुलि जावै।
हांड़ हांड़ औ जोड़ जोड़ रग रोम रोम भन्नावै।
सब लोकन हर शै से होती निशि बासर हहरावै।
उसी तार की धुनि पर बैठै चट साकेत सिधावै।
जब तक खुलै न धुनी नाम की रसना ही से ध्यावै।५।
जपत जपत तनमैता होवै तब सुनने में आवै।
कथा कीर्तन पाठ औ पूजन सब में आनन्द पावै।
छबि सिंगार छटा सियराम कि सन्मुख वाके छावै।
कर का मनका छूटि जाय तब मन का माल फिरावै।
सतगुरु से सब भेद जान ले अजपा यही कहावै।१०।
प्रेम भाव में शक्ति बड़ी है माथ से हाथ गहावै।
सहज समाधि यही है जानो महा सुखी ह्वै जावै।
आतम परमातम है एकै जानै द्वैत नशावै।
मारै गरियावै चहै कोई लखि लखि के मुशक्यावै।
तब विज्ञान दशा हो भक्तौं खेलै घर घर खावै।
कर्म धर्म औ शर्म भर्म नहिं अंधा सत्य सुनावै।१६।
दोहा:-
अहंकार रावन भयो कपट भयो मारीच।
अंधे कह ये दुष्ट हैं भजन में डारैं बीच॥
अंधे कह ये तब हटैं जब तुम बनि जाव नीच।
शाँति छिमा तब संग रहै छूटै द्वैत क कीच।२।