२४१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(२६१)
पद:-
मन मति हरत लखत ही श्याम आप की चाल ढाल मतवाली।
छवि सिंगार छटा की सोभा चितवनि अजब निराली।
मुरली की धुनि श्रवन परै जस जाय जिगर में साली।
बिरह की पीर हरै सब सुधि बुधि कर्मन की गति टाली।
अमृत पियै सुनै घट अनहद सुर मुनि कर गले डाली।५।
तरह तरह की गमक स्वरन ते निकसत भक्तौं आली।
नागिनि जगी चक्र सब नाचत कमल खिले सब डाली।
तेज समाधि नाम धुनि रं रं हर शै में है ढाली।
सतगुरु करो भजन बिधि जानो चेत करो अब हाली।
जनम मरन का नाच कठिन मन मूसर दुनियाँ गाली।१०।
अंधे कहैं धन्य ते प्राणी जिन पायो बन माली॥
अन्त छोड़ि तन निजपुर पहुँचे छूटी गर्भ की जाली।१२।