२८० ॥ श्री राम दीन जी॥
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दोहा:-
कहना तो अति सुलभ है, करना कर्रा काम।
कृष्णदास कहैं सो लखै, जपै निरन्तर नाम॥
आपै जपते आप को, हमै दियो बिश्राम।
कृष्णदास हम हरि लखैं, सुनैं अभ्यन्तर नाम।२।
चौपाई:-
ब्राह्मण सो जो ब्रह्म को जानै। द्वैत भाव उर में नहिं आनै॥
द्विज सो है जो वेद पढ़ावै। तन मन प्रेम लगाय बतावै॥
कर्म धर्म के मार्ग लखावै। तब वह द्विज बैकुण्ठ को जावै॥
पण्डित परम तत्व को जानै। करि पावै तब ठीक ठिकानै॥
पर बोधै जो सरनि में आवै। सो पण्डित उत्तम गति पावै॥
कृष्णदास कहैं ठीक बतायन। जो गुरु कृपा जानि हम पायन।६।
छन्द:-
गीतावली है ग्रन्थ उत्तम अमित करुणा रस भरा।
अक्षरै अक्षर प्रेम टपकै, जानि लेवै सो खरा।
दरशै चरित सब सामने रघुनाथ जी ने जो करा।
सब ग्रन्थ तुलसीदास जी के पढ़त में चित हो हरा।
सुनिहैं जो प्रेम लगाय के तिनका भला पांसा पड़ा।५।
तरिहैं अधम ते अधम प्रानी सेतु यह जग का करा।
सुर मुनि कि कृपा कटाक्ष ते है पुल बना महि पर धरा।
अमृत अनूपम पान करिये छूटिहै तिरगुन लरा।
जो राम नाम प्रभाव जानै काम वा को सब सरा।
कहैं कृष्णदास सुनाय आवा गमन से सोई मरा।१०।
दोहा:-
चारि लोक पासै अहैं, मानो बचन प्रमाण।
काली दुर्गा कृष्ण औ राम ब्रह्म अस्थान॥
चौपाई:-
श्री राम लोक उत्तर दिशि जानो।
श्री कृष्ण लोक पश्चिम दिशि मानो॥
पूरब श्री दुर्गा जी माई। दक्षिण श्री काली सुखदाई।२।
दोहा:-
आदि शक्ति श्री जानकी, काली जी को जान।
ब्रह्माणी गिरिजा रमा, इनसे दुर्गा मान॥
चौपाई:-
मातन के सिंगार कहै को। सन्मुख तेज अपार सहै को॥
भवन बिचित्र बने सुखकारी। जाय न सकै दृष्टि अति भारी॥
माला भाँति भाँति के भाई। डालिन में तँह धरे सोहाई॥
नाना बिधि की धरी मिठाई। थारन की छबि बरनि न जाई॥
मध्य भवन माता सुख दाई। ऊँचे सिंहासन छबि छाई॥
उत्तर मुख कमलासन मारे। पीत बसन तन ऊपर डारे।६।
दोहा:-
हार मिठाई दिब्य सब, शोभा के हित जान।
सब ज्यों के त्यों ही धरे, रहैं लीजिये मान॥
चौपाई:-
श्री गुरु कृपा दरश हम कीन्हा। चरनन ऊपर शिर धरि दीन्हा॥
मातन दोउ कर शिर पर परसे। मानहुँ अमृत के घन बरसे॥
कह्यौ जाव साकेत पुरी को। बनि बैठो तुम रूप हरी को॥
अजर अमर तुम को हम कीन्हा। अचल भयो अब पुत्र प्रबीना।४।
दोहा:-
चलत समय दोउ पग अपन, मम शिर पर धरि दीन।
ध्यान छूट तन मन मगन, दोउ मातन बर दीन॥
चौपाई:-
मातन के जे भजन करत हैं। तन मन प्रेम से नहीं टरत हैं।
शान्ति शील सन्तोष धरत हैं। सरधा दाया छिमा करत हैं।
सत्य दीन पद हृदय धरत हैं। तिनके सारे काम सरत हैं।
हर हनुमान एक हैं भाई। भक्तन हित द्वै रूप बनाई।
तन मन ते जो प्रेम लगावैं। मुक्ति भक्ति इन हाथन पावैं।५।
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